Wednesday, December 24, 2025
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दिल्ली सत्र न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपियों को ‘हाथ उठाकर खड़ा रहने’ की सज़ा को असंवैधानिक बताया

by Lawyerspress
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नई दिल्ली, 4 अगस्त 2025 — दिल्ली की सत्र अदालत ने द्वारका के न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दो आरोपियों को अदालत की कार्यवाही में देरी के कारण ‘हाथ उठाकर खड़ा रहने’ की सज़ा को खारिज करते हुए इसे गैरकानूनी, असंवैधानिक और न्यायिक अधिकारों के दुरुपयोग की संज्ञा दी है। यह निर्णय न्यायिक गरिमा और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप माना जा रहा है।

प्रकरण वर्ष 2018 के पालम गांव के एक भूमि विवाद से संबंधित है, जहां शिकायतकर्ता हरकेश जैन ने आरोप लगाया था कि कुलदीप, राकेश, अनिल, रामकुमार सहित अन्य ने 334 गज जमीन पर जबरन कब्ज़ा करने की कोशिश की और विरोध पर जान से मारने की धमकी दी। समय के साथ दो आरोपी मृत हो चुके हैं। 20 जनवरी 2025 को मजिस्ट्रेट ने आरोपियों को ज़मानत दी थी, जिसमें निजी और जमानती मुचलके की शर्त रखी गई थी। इसके बावजूद जब आरोपी निर्धारित समय पर बांड पेश नहीं कर पाए तो मजिस्ट्रेट ने उन्हें आईपीसी की धारा 228 के तहत दोषी ठहराते हुए उन्हें आदेश दिया कि वे अदालत स्थगन तक हाथ उठाकर खड़े रहें।

अधीनस्थ अदालत के इस निर्णय को चुनौती मिलने पर सत्र न्यायालय की प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश अंजू बजाज चांदना ने आदेश को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह की सजा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 — जो जीवन और व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा करता है — का स्पष्ट उल्लंघन है। न्यायाधीश ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता या आपराधिक प्रक्रिया संहिता में इस प्रकार की सजाओं का कोई प्रावधान नहीं है और यह आदेश न्यायिक विवेक की सीमाओं का अतिक्रमण है।

न्यायालय ने यह भी ध्यान दिलाया कि मजिस्ट्रेट ने न तो आरोपियों को सुनवाई का अवसर दिया और न ही नए आपराधिक कानूनों (जो 1 जुलाई 2024 से प्रभावी हैं) को ध्यान में रखा। यह गंभीर प्रक्रिया संबंधी त्रुटि थी, जिससे यह आदेश विधिक रूप से शून्य हो गया।

यह मामला न्यायिक संतुलन, प्रक्रिया की पवित्रता और विधिक अधिकारों की रक्षा के बीच की जटिल रेखा को रेखांकित करता है। अदालतें यदि अनुशासन बनाए रखने के नाम पर असंवैधानिक आदेश पारित करने लगें, तो न्याय का मूल उद्देश्य ही खतरे में पड़ सकता है। इस प्रकरण ने एक बार फिर याद दिलाया है कि न्यायाधीशों का आचरण भी संविधान के अधीन है, और उनके विवेक का प्रयोग संविधानिक मर्यादा के भीतर ही होना चाहिए।

Ajay Adiyogi Sharma की राय:
“न्याय का प्रथम सिद्धांत है– ‘दया न्याय से पहले नहीं, बल्कि न्याय के बाद आती है।’ यह मामला दर्शाता है कि जब न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत निराशा या प्रशासनिक असहायता को ‘दंड की आकृति’ में व्यक्त करते हैं, तो न्याय का मूल उद्देश्य ही विकृत हो जाता है। अदालतें न्यायालय हैं, तपश्चर्या नहीं — और न ही निंदा मंच। संविधान का अनुच्छेद 21 केवल जीवन का अधिकार नहीं है, बल्कि गरिमामयी जीवन का संरक्षण करता है। हाथ उठाकर खड़ा करने जैसी सजाएं न्यायिक निरंकुशता का प्रतीक बन सकती हैं, यदि उन पर समय रहते रोक न लगाई जाए।”

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